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कविता

निशा की, धो देता राकेश

महादेवी वर्मा


निशा की, धो देता राकेश
चाँदनी में जब अलकें खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधुमदिरा का मोल;

बिछाती थी सपनों के जाल
तुम्हारी वह करुणा की कोर,
गई वह अधरों की मुस्कान
मुझे मधुमय पीड़ा में बोर;

झटक जाता था पागल वात
धूलि में तुहिन कणों के हार;
सिखाने जीवन का संगीत
तभी तुम आए थे इस पार!

गए तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण !
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान।

भूलती थी मैं सीखे राग
बिछलते थे कर बारंबार,
तुम्हें तब आता था करुणेश !
उन्हीं मेरी भूलों पर प्यार!

नहीं अब गाया जाता देव !
थकी अँगुली हैं ढी़ले तार
विश्ववीणा में अपनी आज
मिला लो यह अस्फुट झंकार !

(नीहार से)
 


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